पांवटा दून से अंबाला-देहरादून राष्ट्रीय उच्च मार्ग पर बात्ता मण्डी के समीप भूमध्य रेखा से 30°26'14.5"उत्तर 77°33'54.5"पूर्व पर स्थित समुद्रतल से लगभग 398 मीटर की ऊंचाई पर पातलियों महादेव का मंदिर पातलियों में स्थित है। यह मंदिर साल के वृक्षों से घिरा है। इस मंदिर का निर्माण आधुनिक ढंग की निर्माण सामग्री कंकरीट के साथ हुआ है। यह मंदिर निम्न शिवालिक पर्वत श्रेणी के दूरस्थ छोर पर है। यहां समस्त भूभाग शैव अध्ष्ठित प्रतीत होता है।
इस मंदिर के प्रधान अराध्य देव लिंग स्वरूप शिव हैं। यह शिवलिंग पृथ्वी के संसर्ग से स्थापित होने के फलस्वरूप इसकी व्युत्पत्ति लोक से बताई गई है। धरती के मूल से व्युत्पन्न इस शिवलिंग की अनुमानित लम्बाई 10 फीट तथा गोलाई 10-12 फीट के आसपास है। इस शिवलिंग को अलौकिक शक्ति के चमत्कार की रचना कहा जा सकती है। यद्यपि इस पार्थिक शिवलिंग का तमन्मय होकर ध्यान किया जाये तो ज्ञात होता है कि यह वर्ष भर में अनेक रूप बदलता है।
यह प्रस्तर शिवलिंग भूलत से उठकर एक समान गोलाई में दिखाई पड़ता है जबकि शिखर अधिक मोटाई में दिखाई देता है। यह शिवलिंग वास्तव में दैविक लीलाओं का साक्षात प्रतिबिम्ब है। इस मंदिर के चारों ओर फैला साल का वन भी महादेव जंगल के नाम से प्रसिद्ध है।
इस शिवलिंग के सम्बन्ध में जनमानस में अनेक दंत कथायें प्रचलित हैं । एक शास्त्रोक्त वार्ता के अनुसार एक बार लंकाधिपति रावण मनोरथ सिद्धि की लालसा से कठोर शिव तपस्या में लीन हो गया। तपस्या करते-करते काफी वर्ष बीत गये। लेकिन शिव कृपा निधान न हुये। दसशिर रावण ने शिवत्त प्राप्त करने के लिये घोर तप किया लेकिन वह शिव को रिझाने में सफल न हो सका। जब रावण को शिव दर्शन न हुये तो उसने हिमालय की कन्दरा में हवन कुण्ड बनाकर अग्नि स्थापित कर दी। यहां सतत् भक्ति में लीन रावण ने एक के बाद एक अपना सिर शिव के चरणों में
बलि चढ़ाया। जब रावण का आखिरी सिर शेष रहा तो भक्त वत्सल शिव उसकी अगाध तपस्या को देखकर उसके समक्ष प्रकट हुये । शिव शंकर ने शैव माया के बल से रावण के दसों सिर प्रुर्नीवित कर उसे अतुलित बलधाम और लंका में शिवलिंग स्थापना का वर दिया। शिवलिंग इस शर्त के साथ दिया कि वह इसे धरती पर नहीं रखेगा।
देवेश्वर शिव यह वर देकर चिंतित हुये कि ऐसा करने पर वह राक्षस सृष्टि से देवताओं का संहार कर राक्षसी साम्राज्य स्थापित करेगा। हिमालय पर्वत से लंका की ओर आकाश मार्ग से जाते रावण को शिव माया से मूत्रोत्सर्ग की इच्छा हुई। उसने जंगल में एक ग्वाले को देखकर शिवलिंग उसके हार्थों में ढे दिया । वह ग्वाला शिवलिंग के भार से थक गया तथा उसने शिवलिंग पृथ्वी पर रख दिया। वहीं से शिवलिंग पाताल में अस्त हो गया। इस पर रावण व्यथित होकर कैलाश पर्वत को उखाड़ने लगा ऐसा करने पर शिव ने रावण को शाप दिया।
कालान्तर में पातालियों के वन में शिव की इन चमत्कारिक लीलाओं का पदार्पण माना जाता है। संभवतः इसी कारण इस जंगल का नामकरण महादेव वन हुआ प्रतीत होता है। पाताल में लुप्त शिवलिंग का जब इस धरती पर प्रादुर्भाव हुआ तो इस स्थान को पातलियों कहा जाने लगा तथा शिवलिंग पातलियों महादेव के नाम से पुकारा गया।
यह भी जनश्रुति है कि भस्मासुर नामक राक्षस ने शिव की घोर तपस्या करने पर शिव से भस्म कंगन हासिल किया था। वह राक्षस उस कंगल से सृष्टि को भस्म करने लगा। शिव द्वारा प्रदत्त वर का प्रयोग राक्षस शिव पर ही करने लगा। पृथ्वी पर साम्राज्य स्थापित करने की इच्छा से वह शिव का पीछा करता रहा। इस अनिष्ट से बचने के लिये शिव पाताल में समा गये। भस्मासुर को शाप दिया तथा भस्मासुर को भगवती दुर्गा ने धरती पर से मिटा ढिया। देवताओं की स्तुति पर शिव का पाताल लोक से आविर्भाव हुआ।
पौराणिक आख्यानों में भी यह वर्णन मिलता है कि जहां यमुना पहाड़ों से मैदानों में गिरती है वहां देवाधिदेव महादेव सदैव समीप रहते हैं। पुराणों में यह भी उल्लेख है कि तमसा (तौंस) नदी के समीपवर्ती क्षेत्र को शिवधाम के नाम से पुकारते हैं। यहां लोक आस्था है कि महादेव वन में यह शिवलिंग आदिकाल से है।
यहां मंदिर बनने से पहले ग्रामवासी लिंग के चारों ओर बैठकर भजन कीर्तन करते थे। इस मंदिर में लगभग सन् 947-48 ई. के आसपास बाबा नागर ने रहना आरम्भ किया । यह बाबा शिवलिंग पूजा व स्नान के लिये साधकुंडी से जल लाते थे। इस बाराहमासी जल-स्रोत के इर्द- गिर्द साधु-संत तपस्या करते दिखाई देते हैं। बाबा नागर 18 वर्ष के पश्चात इस शिवधाम को छोड़कर कहीं और आश्रम में चले गये | यहां फिर सन् 972 ई, में बाबा हरिनाथ अघोरी यहां सात वर्ष काटकर गये। इसके बाद सन् 979 ई. में बीस वर्षों तक बाबा भूतनाथ जी शिव मंदिर पातलियों में रहे | यहां साधु-संतों का लगातार आना- जाना मंदिर में व्युत्पन्न शिवलिंग के अलौकिक महत्व को दर्शाता है।
यहां हर वर्ष शिवरात्रि का मेला धूमधाम से मनाया जाता है। इस मेले के लिये श्रद्धालुओं का अपार सैलाब उमड़ पड़ता है। यहां शिव मंदिर के अतिरिक्त वट वृक्ष की ओट में सैयद पीर के नाम पर श्रद्धालु शीश नवाते हैं। इस मंदिर के एक छोर पर बाबा बालक नाथ की गुफा है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिये पांवटा नगर की बात्ता मंडी से ऊपर की ओर 2 किलोमीटर कच्ची सड़क है।
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